जीवन अतीत की यादों का पोथा नहीं…(एक काव्य)(Against Domestic violence)

नयी नहीं थी ये बात उसके लिए यूँ अचानक रातों में डर सा जाना, डर कर सहम सा जाना, सहम कर छुप सा जाना कहीं, फिर सम्हालना अपने काँपते हुए तन को, सम्हाल कर ढूंढना आई कहाँ से ये आवाज़ अभी।
बरबस यूँ ही फिर से अतीत में खो सा जाना।

उसकी वो भोली सी सूरत जो ज़रा सख्त सी दिख रही थी, पथरा से गए थे उसके दो तीखे नयन, निहारना चाह रहे थे खुले-खुले विशाल अम्बर को वो, बसा जिसके तले जग हमारा नित्य प्रेम वर्षा पाने को, बस अभी निकली शीतल पवन गुजरते हुए, महसूस करना चाहती थी काव्या भी, इस कण-कण में बेस प्रेम को उसे सहेजते हुए।

जब से सम्हाले थे होश उसने यूँ ही पाया था रातों में स्वयं को रोते हुए, कई आवाजें बर्तनों के गिरने की, कांच के दूटने की, माँ के चिल्लाने की, दर्द से कराहने की, पिता के गुर्राने की, ना मानने पर माँ के उसको एक तरफ फेंकने की, अपनी तरफ अग्रसर कदमों की, माँ में अचानक फुर्ती सा पाने की, उसके मुख पर रख हाथ उसको शीघ्र ही कहीं छुपाने की, तेजी से सिसकने की, सिसक कर चिल्लाने की, छोड़ दो मेरी बेटी को, हाँ, आप चले जाइए, जिसके भी साथ जाना है, हाथ जोड़ विनती सा करने की, बाद में बिस्तर के नीचे ही बन गया था अपनी काव्या का ठिकाना,एक परी सी दिखने वाली काव्या, गुजरा बचपन कहानियों के बिना, क्यों है वो समझदार इतनी,क्यों सिखाया जीवन ने उसे समझना, दूजा ही इशारा।

वर्तमान ने दरवाज़ा खटखटाया पुनः,
आया काव्या को होश ज़रा, नारियों के लिए एनजीओ चलाने वाली वो उठ खड़ी हुई कुर्सी के पीछे से, ये मेरा अतीत नहीं वर्तमान है, सामने है एक नए रिश्ते का इशारा, मेरी सखी कल्पना, उसकी चमकती सी आखें, होठों पर फिर से है मुस्कान, एक बड़ा प्रश्न है नित्य काव्या के सम्मुख खड़ा, अतीत का रोना रोये या दे जीवन को नया आयाम, कटघरे में खड़ा है यहाँ, नारी का आत्मसम्मान।

सहसा बादल छटने लगे अम्बर से, उम्मीद की किरण ने थामा हाथ, एक नया सितारा आकाश में तेजी से चमचमाया, इस चमक ने फिर से काव्या को भी रास्ता दिखाया, नयी सोच, नयी उमंग, नयी तरंग इस जीवन की, भले ही अतीत हो भयावह, वर्तमान फिर भी होता है हमारा, भरोसा उठा था पिता से, परम-पिता का फिर भी है इशारा, बिस्तर के नीचे अब नहीं समाती है काव्या, कुर्सी के पिछवाड़े का भी लेगी कब तक सहारा। वो तो ना थी कमजोर कभी, खत्म करेगी अब, वो हर दोराहा.

जीवन अतीत की यादों का कोई पोथा नहीं, हर क्षण वर्तमान की एक नयी सौगात है , कब तक मुरझाये हुए फूलों पर नजर रखोगे तुम यहाँ, आसपास देखो तनिक भविष्य की कोपलें यहीं तुम्हारे पास हैं. बारिश की बूंदों को अब गिरने दो यहाँ, खंड-खंड में बटती हुई धरती की यही पुकार है। कब तक भास्कर की रश्मि को दूर रोके रखोगे तुम, हर नए प्रभात की आवश्यकता है, एक रात, यही यथार्थ है।।

Malvika
@soultosoulvibes.in

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